फिर लौटे पुराने ठेकेदार जमींदार ? क्या करेंगे गरीब मजदूर लाचार ?

पुरानी जमींदारी व्यवस्था के अंतर्गत जमींदारों को भूमि का स्थायी मालिक बना दिया गया था। भूमि पर उनका अधिकार पैतृक एवं हस्तांतरणीय था। जब तक वो एक निश्चित लगान सरकार को देते रहें तब तक उनको भूमि से अलग नहीं किया जा सकता था। परंतु किसानों को मात्र रैयतों का नीचा दर्जा दिया गया तथा उनसे भूमि संबंधी अधिकारों को छीन लिया गया था। मात्र कुछ लोग ही जमींदार होते थे, बाकी सभी लोगों की हालत बिल्कुल गुलाम जैसी थी। उस व्यवस्था में गरीब हमेशा गरीब और मजदूर हमेशा मजदूर ही बना रह सकता था। हालांकि देश को आजादी मिलते ही कानून बनाकर जमींदारी प्रथा खत्म कर दी गई……..लेकिन अधिकांश जमींदारों की मानसिकता आजाद भारत में भी वैसी ही अभी भी बनी हुई है। अगर दूसरे शब्दों में कहें तो पुरानी जमींदारी व्यवस्था ने अब नया या रिफाइंड रूप धारण कर लिया है।…….इसको समझाने के लिए हमे सबसे पहले ये समझना जरूरी है कि आजादी के बाद से हमारे देश को एक लोक कल्याणकारी बनाने वाले ढांचे में ढाला गया। सरकार ने खुद फैक्ट्रियां लगाई, कल कारखाने खोले और शिक्षा तथा स्वास्थ्य और ट्रांसपोर्ट में भी सरकार ने वैसा ही सिस्टम लागू किया। उदाहरण के लिए हम रेलवे को ले सकते हैं। सरकार के लिए ये सब चीजें कमाने के लिए नही बनाई गई थी। इनसे लोगों को नौकरी और रोजगार तो मिलता ही था, साथ साथ एक गरीब आदमी भी इसका खर्च आसानी से उठा सकता था। क्योंकि इसको लोगों की सुविधा को ध्यान में रखकर किया गया था। लेकिन आज की हालत बिल्कुल अलग है। सरकारें अधिकाश सरकारी उपक्रमों को पैसा कमाने वाली प्राइवेट कंपनी की तरह बनाने लगी हैं। इसके कारण इसमें ठेकेदारी व्यवस्था को घुसाया गया हैं। जिसके कारण ये सुविधाएं अब इतनी महंगी हो गई हैं कि साधारण और गरीब आदमी इसका उपयोग करने से पहले सौ बार सोचता है।


ये रेलवे तो सिर्फ एक उदाहरण था, आप देश के किसी भी विभाग में सर्च कर देख लीजिए। कोई भी विभाग इस ठेकेदारी व्यवस्था से अछूता नहीं है। जिसके कारण अमीर लोग अमीर और गरीब लोग गरीब होते जा रहे हैं। रोटी कपड़ा और मकान के साथ साथ रोजमर्रा की सारी चीजें और सारी सुविधाएं महंगी होती जा रही हैं।

….देश के लिए नीति बनाने वाले प्रशासक भी अमेरिकी मॉडल को भारत जैसे देश में लागू कर रहे हैं। लेकिन इन लोगों को ये समझना होगा कि भारत में कुछ लोग ऐसे हैं जो दिन रात इस चिंता में रहते हैं कि पैसा कहां खर्च करें,कहां इन्वेस्ट करें कि और ज्यादा अमीर होते जाएं। दूसरी तरफ देश की बहुत बड़ी आबादी ऐसी है जिसको रोज ये चिंता सताती है कि आज का दिन तो कट गया, कल का खर्च कहां से करेंगे।……..

कुल मिलाकर ये समझना होगा कि संतुलन हर जगह बहुत जरूरी है। अगर सरकार लोक कल्याणकारी राज्य के ढांचे से बाहर निकलकर अमेरिकी व्यवस्था अपनाएगी तो वो बहुत दिन तक सफल नहीं हो सकती। इसके कारण फिर से नई पोशाक में पुराने जमींदार समाज में पैदा हो रहे है और बढ़ रहे हैं। अमीर दिन पर दिन अमीर हो रहा है और गरीब दिन पर दिन गरीब हो रहा है।


इन्ही सब कारणों से देश के कई राजनीतिक दलों ने एक नए नारे को जन्म दे दिया है। जिसकी जितनी भागेदारी,उसकी उतनी हिस्सेदारी। …..ये केवल राजनीतिक दिमाग की ही उपज नही है बल्कि सामाजिक व्यवस्था की उपज है। समाज में जब भी असंतुलन पैदा होगा तो ऐसी मांगे जोर पकड़ेंगी और अपने हक की आवाज उठाएंगे।

अगर ठेकेदारी व्यवस्था ऐसे ही बढ़ती रही तो कमजोर गरीब मजदूर वर्ग का कल्याण कैसे होगा। आज बड़े बड़े शहरों में ठेकेदारों द्वारा जिन मजदूरों से आलीशान गगनचुंबी और चमचमाती बिल्डिंग बनवाए जाते हैं, उन मजदूरों के बारे में, उनके बच्चों के भविष्य के बारे में ना तो ठेकेदार सोचता है और नही सरकार।

अगर अमेरिकी व्यवस्था अपनाना है तो उन गरीब मजदूरों के परिवार और बच्चो के भविष्य और सुविधा के बारे में भी अमेरिकी व्यवस्था लागू करनी ही पड़ेगी। नही तो आने वाले दिनों में सामाजिक असंतुलन और असंतोष पैदा होते रहेगा।