RLD BJP Alliance: चौधरी परिवार चौथी बार बीजेपी के करीब, 27 साल में आरएलडी का होगा दसवां गठबंधन

jayant chaudhary

RLD BJP Alliance: युपी की रियासत में आरएलडी प्रमुख जयंत चौधरी के सामने अपने बाप दादा की विरासत को बचाने की चुनौती है। ऐसे में जयंत चौधरी इंडिया गठबंधन से अलग होकर भाजपा नेतृत्व वाले एनडीए के साथ हाथ मिलाने की तैयारी में है। जिसका औपचारिक ऐलान एक-दो दिन में हो सकता है। आरएलडी अपने 27 साल के 86 इतिहास में पहली बार किसी दल के साथ गठबंधन कर चुनाव में नहीं उतर रही बल्कि भाजपा से लेकर कांग्रेस बसपा समेत सभी प्रमुख दलों के साथ हाथ मिल चुकी है।

RLD BJP Alliance

RLD-BJP Alliance: चौधरी चरण सिंह का परिवार भाजपा के करीब चौथी बार रहा है। इस तरह दोनों दलों के बीच गठबंधन का नाता लगभग 5 दशक पुराना है। साल 1977 में जनसंघ के नेता पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेई जनता पार्टी का हिस्सा बने थे चौधरी चरण सिंह के बेटे चौधरी अजीत सिंह उत्तर प्रदेश में 2002 में विधानसभा और 2009 के लोकसभा चुनाव में भाजपा के साथ मिलकर चुनाव लड़े थे। इसके बाद अब एक बार फिर आरएलडी 2024 के लोकसभा चुनाव में चौथी बार भाजपा के करीब आ रही है ऐसे में देखना है कि जयंत चौधरी क्या सियासी गुल खिला पाते हैं।

पश्चिमी उत्तर प्रदेश के जाटलैंट में सियासी आधार माने जाने वाली आरएलडी के सितारे भले ही आज गर्दिश में हो, लेकिन एक दौर में वह किंगमेकर की भूमिका में रहते थे। चौधरी अजीत सिंह 1980 में अपने पिता चौधरी चरण सिंह की उंगली पड़कर राजनीति में आए थे। अजीत सिंह ने राजनीति में कदम रखा तो उनके पास अपने पिता की बड़ी विरासत थी चौधरी चरण सिंह से पूर्व प्रधानमंत्री ही नहीं बल्कि देश खासतौर पर उत्तर भारत के किसानों के एक मात्र नेता थे किसान आज भी उन्हें अपना मसीहा मानते हैं।

राजीव गांधी प्रचंड बहुमत से देश के प्रधानमंत्री बने थे और उनकी मिस्टर क्लीन और प्रिंस चार्मिंग वाली छवि के मुकाबले विपक्ष के पास कोई चेहरा नहीं था। अजीत सिंह ने पिता की विरासत संभाल तो विपक्ष के तात्कालिक नेताओं के मुकाबले सबसे ज्यादा युवा शिक्षित और साफ सुथरी वाले थे वह अमेरिका से पढ़कर और भारत आए थे एक वैश्विक नजरिया के साथ उन्होंने उसे देसी राजनीति की कमान संभाली जो ठेठ भारतीय थी साल 1980 में अजीत सिंह ने 86 परी का आगाज किया था।।

चौधरी चरण सिंह के निधन के बाद चौधरी अजीत सिंह 1987 में लोक दल के अध्यक्ष बने 1988 में ही जनता पार्टी के अध्यक्ष घोषित किए गए। अजीत सिंह अपनी खोई जमीन तलाश रहे थे की सियासी परिस्थितियों ने उन्हें कांग्रेस का साथ देकर केंद्र में मंत्री बनने की तरफ मोड़ दिया । कांग्रेस के साथ जाने के चलते अजीत सिंह का जनाधार पूरी तरह बिखर गया। ऐसे में कांग्रेस के साथ ज्यादा दिन नहीं देख पाए और 1996 के लोकसभा चुनाव के बाद पहले वह फिर से अलग हुए। उस समय वह संयुक्त मोर्चा का हिस्सा बन गए जिसमें मुलायम सिंह यादव भी शामिल थे एचडी देवगौड़ा और आईके गुजराल के समय में मंत्री रहे।

अजीत सिंह अपनी खोई जमीन तलाशने और सियासी मुनाफे के लिए इधर-उधर पाला बदलने की राजनीति करते रहे। इसी का नतीजा रहा की 1998 में अजीत सिंह को लोकसभा चुनाव में हार का सामना करना पड़ा। 1999 के लोकसभा चुनाव में अजीत सिंह चुनाव जीते और बाद में बीजेपी से समझौता कर लिए पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेई के अगुवाई वाली सरकार में वह कृषि मंत्री बने लेकिन बहुत ज्यादा दिन साथ नहीं रह सके । साल 2002 के विधानसभा के चुनाव में आरएलडी ने बीजेपी के साथ चुनाव मिलकर लड़ा जिसमें आरएलडी 14 सीटे जीतने में सफल रही लेकिन चुनाव के बाद अजीत सिंह ने अटल सरकार से इस्तीफा दे दिया और बीजेपी से गठबंधन तोड़ लिया इसका सियासी ऐसा उत्तर प्रदेश की राजनीति पर भी पड़ा।

मुलायम सिंह के साथ अजीत सिंह की राजनीतिक प्रतिद्वंता जबरदस्त थी लेकिन 2003 में जब उत्तर प्रदेश में भाजपा के गठबंधन से मायावती की सरकार चल रही थी तब अजीत सिंह ने अपने 14 विधायकों का समर्थन वापस लेकर मायावती सरकार के गिराने का रास्ता तैयार किया । मुलायम सिंह और अजीत सिंह के बीच पुल बनने का काम त्रिलोक त्यागी ने किया अजीत सिंह ने मुलायम सिंह यादव को समर्थन देकर उनकी सरकार बनवा इसके लिए कांग्रेस को तैयार करने में भी अजीत सिंह ने बड़ी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। इसी का नतीजा था कि मुलायम सरकार में अजीत सिंह के 7 विधायक मंत्री बने थे।

2004 के लोकसभा चुनाव में आरएलडी ने समाजवादी पार्टी के साथ मिलकर किस्मत आजमाई तो सपा के लिए फायदेमंद रहा आरएलडी तीन सीट जीने में कामयाब रही तो समाजवादी पार्टी को मिली 35 सीटे लेकिन 4 साल के बाद दोनों दल का गठबंधन टूट गया। 2007 चुनाव में समाजवादी पार्टी और आरएलडी अलग-अलग चुनाव लड़ी । इस चुनाव में आरएलडी 10 सीटे जीतने में कामयाब रही लेकिन बसपा को पूर्ण बहुमत मिलने के चलते बारगेनिंग पावर नहीं बन पाई।

साल 2008 में जब अमेरिका के साथ परमाणु समझौते को लेकर वामपंथी दलों का समर्थन लेने के बाद यूपीए संसद में अविश्वास प्रस्ताव का सामना कर रही थी तब अजीत सिंह ने कांग्रेस के खिलाफ वोट दिया था इसके बाद 2009 के लोकसभा चुनाव में आरएलडी ने बीजेपी के साथ किस्मत आजमाई लेकिन इसका फायदा बीजेपी से ज्यादा आरएलडी को मिला। आरएलडी को पांच सीटे मिली जबकि भाजपा को 10 सीटों से ही संतोष करना पड़ा लेकिन दोनों दलों में खटास आ गई।

अजीत सिंह 2011 में यूपीए का हिस्सा बने और मनमोहन सिंह के सरकार में नागरिक उड्डयन मंत्री बने। इसके बाद 2012 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस और आरएलडी मिलकर चुनावी मैदान में उतरे लेकिन कोई बड़ा करिश्मा नहीं दिखा पाए। 2012 चुनाव में आरएलडी 46 सीटों पर लड़ी और दो सीटे जीती जबकि कांग्रेस 355 सीटों पर आरएलडी 22 सीटे ही जीत सके। 2014 के लोकसभा चुनाव में आरएलडी और कांग्रेस की दोस्ती बरकरार रही लेकिन 2013 में हुए मुजफ्फरनगर दंगों का नुकसान अजीत सिंह और आरएलडी को हुआ इस वजह से 2014 के लोकसभा चुनाव में अजीत और उनके पुत्र जयंत चौधरी दोनों ही हार गए कांग्रेस भी केवल दो सीटें ही जीत पाई जबकि आरएलडी अपना खाता भी नहीं खोल सकी।

2017 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस और समाजवादी पार्टी में दोस्ती हो जाने के चलते आरएलडी हाशिए पर पहुंच गई। यह दोस्ती बिखरने का नुकसान दोनों दलों को हुआ है। इसके बाद 2018 में कारण लोकसभा उपचुनाव में आरएलडी का समाजवादी पार्टी के साथ करीबी बड़ी 2019 के लोकसभा चुनाव में आरएलडी बसपा समाजवादी पार्टी के साथ मिलकर चुनावी मैदान में उतरी। इस बार आरएलडी तीन सीटों पर चुनाव लड़ी जिनमें से एक भी सीट को जीत नहीं सकी इतना ही नहीं अजीत सिंह और जयंत दोनों हार गए। जबकि बसपा को 10 और समाजवादी पार्टी को 5 सीटे मिली । इस गठबंधन का फायदा बसपा को मिला।

मायावती के गठबंधन से अलग हो जाने के बाद समाजवादी पार्टी और आरएलडी साथ थे। 2022 के विधानसभा चुनाव में समाजवादी पार्टी आरएलडी मिलकर चुनाव लड़े आरएलडी 36 सीटों पर चुनाव लड़ी जिसमें 8 सीटे जीतने में कामयाब रही और एक सीट उपचुनाव में जीती। विधानसभा चुनाव के बाद समाजवादी पार्टी ने जयंत को अपने कोटे से राज्यसभा भेजा । 2024 के लोकसभा चुनाव में भी समाजवादी पार्टी और आरएलडी के साथ लड़ने का समझौता था इसके तहत ही अखिलेश यादव ने आरएलडी को 7 लोकसभा सीट देने का ऐलान भी किया था लेकिन अब उनकी बातचीत बीजेपी के साथ चल रही है।

अखिलेश यादव सीट बंटवारे में जयंत चौधरी को 7 सीटे दे रहे थे लेकिन उसमें तीन सीट पर सपा अपने नेताओं को आरएलडी के सिंबल पर चुनाव लड़ना चाहती थी इसी वजह से मनमुटाव पैदा हो गया माना जा रहा है कि इसके बाद ही भाजपा के साथ उनके जाने की चर्चा तेज हो गई। भाजपा के द्वारा आरएलडी को चार लोकसभा सीट देने का ऑफर है इस बात को आरएलडी नेता भी खुलकर कह रहे हैं।

जनसंघ से बनी भाजपा और भारतीय किसान दल से रालोद का गठन हुआ। साल 2002 में बीजेपी आरएलडी का आरएलडी का उत्तर प्रदेश विधानसभा के चुनाव में मिलकर लड़े थे इसके बाद 2009 के लोकसभा चुनाव में फिर से दोनों का गठबंधन हुआ। भाजपा ने रालोद को 7 सीटे दी थी जिनमें से पांच पर आरएलडी ने जीत हासिल की बागपत से चौधरी अजीत सिंह बिजनौर से संजय चौहान मथुरा से जयंत सिंह हाथरस से सारिका बघेल अमरोहा से देवेंद्र नागपाल सांसद चुने गए थे नगीना से मुंशी रामपाल मुजफ्फरनगर से अनुराधा चौधरी चुनाव हार गए थे । इसके बाद अब फिर से साथ मिलकर चुनाव लड़ने का ताना-बाना बनाया जा रहा देखना काफी महत्वपूर्ण होगा कि क्या इस बार सियासी करिश्मा जयंत चौधरी दिखा पाते हैं।

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